हिंदुस्तान का राष्ट्रीय खेल अब हॉकी नहीं क्रिकेट होना चाहिए। जिस तरह से क्रिकेट को तवज्जो मिल रही है ये इस बात के लिए पुख्ता पैमाना है. ये अच्छी बात है कि इंडियन टीम ने 23 सालों बाद ऑस्ट्रेलिया को हराकर वनडे सीरीज़ जीती है लेकिन ऐसा नहीं कि हमने विश्व कप जीत लिया, जिस तरह से हिंदुस्तानी मीडिया ने इस श्रृंखला को कवरेज दी है क्या हॉकी इसके लायक नहीं,
हॉकी टीम भी ओलंपिक क्वालिफाइंग टूर्नामेंट में आगे बढ़ रही है लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ऐसी कोई खबर नहीं, यहां तो अखंड क्रिकेट पाठ चल रहा है, चलिए श्रृंखला जीती तो खुशी है कवर करिए, लेकिन उसके बाद का हंगामा देखिए ,चैनल खिलाड़ियों की शादी करा रहे हैं... किसका क्या हेयर स्टाइल है.. इसकी गाथा चल रही है... लेकिन क्या हो यही सब बिकता है हॉकी का बाज़ार ऐसा नहीं जहां करोड़ों की आमदनी होती है, इसलिए हॉकी दीनहीन है.... हॉकी तू राष्ट्रीय खेल के लायक नहीं ये ओहदा छोड़ दे..........
Saturday, March 8, 2008
Monday, March 3, 2008
एक शाम दलाली ज्ञान के नाम
जैसे ही विनय ने शराब की गिलास नीचे रखी, अजय ने अपने व्यंग्य वाणों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि कांग्रेस और तुम्हारी टिप्पणियां, कभी 6 महीने से ज्यादा टिक नही सकतीं। ....जैसे ही अजय ने अपने तरकश से तीर चलाने बंद किए- अमित बोला, ये बरछी नहीं ब्रह्मास्त्र है- ऐसी बातें हम अक्सर अपने दोस्त अजय के लिए करते हैं। अपने शब्दभेदी बाणों से लोगों को छलनी कर देना उसे बख़ूबी आता है। अजय की आदत थी कि उसकी बातों को काटा न जाए, क्योंकि उसे सब आता है - बाकी जिक्र आगे करूंगा। कहानी जो पूरी करनी है........
दरअसल ये स्वयंभू पंचायत हर सप्ताह एक बार जरूर होती है। और हम दोस्त जी भर के मुंहपिल्लई करते हैं। इस दौरान हर चीज पर चर्चा होती है - गाँव की पंचायत से लेकर बुश की नीतियों तक पर - गन्ने के खेत में होने वाले प्रेम प्रसंग से लकर हॉलीवुड की हीरोईनों पर.....हर तरह के क़िस्से...। पंचायतनामा पर आगे बढ़ने से पहले आपको इसके पात्रों से रूबरू करवा देते हैं.....हम चार दोस्त। पहले मेरे बारे में जानिए - मैं यानी रवि--उम्र 26 साल-सिर से कुछ बाल उड़ गए हैं- बाकी उड़ने के लिए पंख फैला रखे हैं....लगता ऐसे हूं जैसे सप्लाई विभाग का बड़ा बाबू....मुंह में पान हो तो क्या कहने। यूपी के एक छोटे से शहर से दिल्ली आया और देश के सर्वोच्च पत्रकारिता संस्थान में दाखिला लिया....सोचा एक दिन नामी पत्रकार बनेंगे...नया आदर्श बनाएंगे ताकि देश को वैचारिक क्रांति दी जा सके----आज ये क्रांति तभी आती है जब किसी पार्टी में एक पेग दारू अंदर जाती है। बाकी हालात ये हैं कि सूअर जैसे अपना पेट पालता है वैसे ही नौकरी किए जा रहे हैं। आलसी नंबर एक - मेरा दोस्त अजय...थोड़े से मोटे हैं जनाब, जैसे कपड़े की दुकान पर बैठा बनिया.....वो भी यूपी से....धनी घर का लड़का नाहक ऐसे मायाजाल में फंस गया। जन्म से कोई तकलीफ नहीं देखी-सो मनुवादिता आज भी रग-रग में मौजूद है। अमित-शक्ल ऐसी कि मानो दरभंगा जिले के डीएम का पीए हो। पान मसाले के शौकीन.....ये बिहारी बाबू भी मेरे जैसे आदर्शों के साथ दिल्ली आया, लेकिन कॉन्क्रीट के जंगलों में भटकते हुए. वो लौ दलाली की लकड़ियां जलाने लगी हैं। मेरी ही तरह आलसी नंबर एक....नित्यक्रिया करना भी पहाड़ खोदने जैसा है। अब बच गए विनय बाबू। थोड़े से सकुचाते लजाते....पान खाने में भी लिहाज़ देखते हैं। नाम कमाने का शौक है। हाथ में एक साहित्य की किताब नज़र आ ही जाती है। मानो अभी-अभी किसी कवि सम्मेलन से बुलावा आ जाए। अंग्रेज़ी माध्यम के छात्र रहे हैं, कंप्यूटर का ज्ञान भी रखते हैं। लेकिन सबकुछ छोड़-छाड़ कर चले आए पटना से दिल्ली-सोचा मार्क्स के चाचा बन जाएंगे। वो तो न हुआ लेकिन वैचारिक उल्टी से पूरा कम्युनिज्म उगल देते हैं। क्या कॉम्बिनेशन है हमारा। दो यूपी से, दो बिहार से। एक तो करैला, उपर से नीम चढ़ा। हम चारों ने एक ही संस्थान से डिग्री हासिल की और निकल पड़े मंज़िल की तलाश में। एक नामी अख़बार के दफ़्तर में चारों में से तीन यारों ने जगह बना ली। लेकिन अमित की मुफलिसी अभी मिटी नहीं है....उसके लिए हमारा प्रयास जारी है कि उसकी भी नौकरी लग जाए लेकिन किस्मत नाम की चीज़ ऐसा होने नहीं दे रही है। चूंकि हम चारो विवाह की बेड़ियों से नहीं जकड़े हैं सो मिलना आसान है....सप्ताह में एक दिन इसी के लिए मुकर्रर है कि अपने जख्मों पर नमक छिड़का जाए। आप ये न सोचें कि हम इस दौड़ान सिर्फ़ बकवास ही किया करते हैं। काम के चर्चे भी हुआ करते हैं। मस्तराम टाईप दोयम दर्ज़े साहित्य से लेकर पश्चिमी साहित्य तक। हमें साहित्य से गहरा लगाव है। मेरा ये लगाव तीनों से मिलने के बाद हुआ। अब चलता हूं उस जगह जहां से बौद्धिकता का नंगा नाच मैंने शुरू किया था। ....यानि अपनी बैठक में। मैंने अजय से कहा यार तुम्हारा नौकर जब से गया है बड़ी दिक्कत होती है। अपनी रॉकिंग चेयर पर किसी रायबहादुर की तरह बैठा अजय बोला...यार दूसरे के लिए कह रखा है। कुछ दिनों मे आ जाएगा। मैंने कहा यार इन लोगों के नाम भी अज़ीब होते हैं....उस नौकर का नाम था रामफल...ऐसे और भी नाम आपको मिल जाएंगे जैसे रामखेलावन, सुरतीलाल...लगता है आज़ादी के बाद भी ऐसा नाम रखना कहीं न कहीं दिखाता है कि समानता के नारे अभी ढ़ंग से नहीं लग पाए हैं। ख़ैर छोड़िए हमें क्या...इसके बारे में सोचना हमारा काम थोड़े ही है। सरकार को सोचने दीजिए। हमने तो एक साथ चार गुटके लिए और चारों ने दनादन मुंह में डाल लिए...गुटखा और पान की गिलौरी हमें इतनी प्रिय है कि क्या कहें और खाकर इतना आनंद आता है कि देवताओं ने अमृत पी कर भी ऐसा मज़ा न लिया हो। अमित बोला...यार पैसा कमाते हैं...दिल्ली में जो बड़े-बड़े मॉल हैं. चमक-दमक है....इस गंगा में डूबकर अपना भी उद्धार करते हैं। अजय का पारा चढ़ा, उसने चेहरे को लाल पीला करते हुए तुम लोग खाई में गिर रहे हो....मैंने उसे शांत किया...नहीं तो उस वक्त फिर किसी अंग्रेज़ी लेखक का कोट सुनना पड़ता...ऐसा नहीं है कि हम उसका आलोचना कर रहे हैं। दरअसल अजय हमारे सुख दुख का साथी है। हम सबमें सबसे ज्यादा विदेशी ज्ञान उसी के पास है। वो इकलौता हमारे बीच अंग्रेज़ी का ज्ञाता है। उसे देखकर मुझे अपना भीमगढ़ ताल याद आता है....हो दरजी सी दे रे चोलिया हमार जैसे गाने से माहौल में रस घुला तो विनय ने अमित से पूछा-कैसे? जवाब था दलाली से। लेकिन शुरूआत पहले पायदान से करनी होगी...मैंने कहा चलो मुर्दाघर में दलाली का धंधा करते ईजाद करते हैं। इस पर विनय तपाक से बोला....हे, हम इलीट लोग हैं.....क्रमश:
दरअसल ये स्वयंभू पंचायत हर सप्ताह एक बार जरूर होती है। और हम दोस्त जी भर के मुंहपिल्लई करते हैं। इस दौरान हर चीज पर चर्चा होती है - गाँव की पंचायत से लेकर बुश की नीतियों तक पर - गन्ने के खेत में होने वाले प्रेम प्रसंग से लकर हॉलीवुड की हीरोईनों पर.....हर तरह के क़िस्से...। पंचायतनामा पर आगे बढ़ने से पहले आपको इसके पात्रों से रूबरू करवा देते हैं.....हम चार दोस्त। पहले मेरे बारे में जानिए - मैं यानी रवि--उम्र 26 साल-सिर से कुछ बाल उड़ गए हैं- बाकी उड़ने के लिए पंख फैला रखे हैं....लगता ऐसे हूं जैसे सप्लाई विभाग का बड़ा बाबू....मुंह में पान हो तो क्या कहने। यूपी के एक छोटे से शहर से दिल्ली आया और देश के सर्वोच्च पत्रकारिता संस्थान में दाखिला लिया....सोचा एक दिन नामी पत्रकार बनेंगे...नया आदर्श बनाएंगे ताकि देश को वैचारिक क्रांति दी जा सके----आज ये क्रांति तभी आती है जब किसी पार्टी में एक पेग दारू अंदर जाती है। बाकी हालात ये हैं कि सूअर जैसे अपना पेट पालता है वैसे ही नौकरी किए जा रहे हैं। आलसी नंबर एक - मेरा दोस्त अजय...थोड़े से मोटे हैं जनाब, जैसे कपड़े की दुकान पर बैठा बनिया.....वो भी यूपी से....धनी घर का लड़का नाहक ऐसे मायाजाल में फंस गया। जन्म से कोई तकलीफ नहीं देखी-सो मनुवादिता आज भी रग-रग में मौजूद है। अमित-शक्ल ऐसी कि मानो दरभंगा जिले के डीएम का पीए हो। पान मसाले के शौकीन.....ये बिहारी बाबू भी मेरे जैसे आदर्शों के साथ दिल्ली आया, लेकिन कॉन्क्रीट के जंगलों में भटकते हुए. वो लौ दलाली की लकड़ियां जलाने लगी हैं। मेरी ही तरह आलसी नंबर एक....नित्यक्रिया करना भी पहाड़ खोदने जैसा है। अब बच गए विनय बाबू। थोड़े से सकुचाते लजाते....पान खाने में भी लिहाज़ देखते हैं। नाम कमाने का शौक है। हाथ में एक साहित्य की किताब नज़र आ ही जाती है। मानो अभी-अभी किसी कवि सम्मेलन से बुलावा आ जाए। अंग्रेज़ी माध्यम के छात्र रहे हैं, कंप्यूटर का ज्ञान भी रखते हैं। लेकिन सबकुछ छोड़-छाड़ कर चले आए पटना से दिल्ली-सोचा मार्क्स के चाचा बन जाएंगे। वो तो न हुआ लेकिन वैचारिक उल्टी से पूरा कम्युनिज्म उगल देते हैं। क्या कॉम्बिनेशन है हमारा। दो यूपी से, दो बिहार से। एक तो करैला, उपर से नीम चढ़ा। हम चारों ने एक ही संस्थान से डिग्री हासिल की और निकल पड़े मंज़िल की तलाश में। एक नामी अख़बार के दफ़्तर में चारों में से तीन यारों ने जगह बना ली। लेकिन अमित की मुफलिसी अभी मिटी नहीं है....उसके लिए हमारा प्रयास जारी है कि उसकी भी नौकरी लग जाए लेकिन किस्मत नाम की चीज़ ऐसा होने नहीं दे रही है। चूंकि हम चारो विवाह की बेड़ियों से नहीं जकड़े हैं सो मिलना आसान है....सप्ताह में एक दिन इसी के लिए मुकर्रर है कि अपने जख्मों पर नमक छिड़का जाए। आप ये न सोचें कि हम इस दौड़ान सिर्फ़ बकवास ही किया करते हैं। काम के चर्चे भी हुआ करते हैं। मस्तराम टाईप दोयम दर्ज़े साहित्य से लेकर पश्चिमी साहित्य तक। हमें साहित्य से गहरा लगाव है। मेरा ये लगाव तीनों से मिलने के बाद हुआ। अब चलता हूं उस जगह जहां से बौद्धिकता का नंगा नाच मैंने शुरू किया था। ....यानि अपनी बैठक में। मैंने अजय से कहा यार तुम्हारा नौकर जब से गया है बड़ी दिक्कत होती है। अपनी रॉकिंग चेयर पर किसी रायबहादुर की तरह बैठा अजय बोला...यार दूसरे के लिए कह रखा है। कुछ दिनों मे आ जाएगा। मैंने कहा यार इन लोगों के नाम भी अज़ीब होते हैं....उस नौकर का नाम था रामफल...ऐसे और भी नाम आपको मिल जाएंगे जैसे रामखेलावन, सुरतीलाल...लगता है आज़ादी के बाद भी ऐसा नाम रखना कहीं न कहीं दिखाता है कि समानता के नारे अभी ढ़ंग से नहीं लग पाए हैं। ख़ैर छोड़िए हमें क्या...इसके बारे में सोचना हमारा काम थोड़े ही है। सरकार को सोचने दीजिए। हमने तो एक साथ चार गुटके लिए और चारों ने दनादन मुंह में डाल लिए...गुटखा और पान की गिलौरी हमें इतनी प्रिय है कि क्या कहें और खाकर इतना आनंद आता है कि देवताओं ने अमृत पी कर भी ऐसा मज़ा न लिया हो। अमित बोला...यार पैसा कमाते हैं...दिल्ली में जो बड़े-बड़े मॉल हैं. चमक-दमक है....इस गंगा में डूबकर अपना भी उद्धार करते हैं। अजय का पारा चढ़ा, उसने चेहरे को लाल पीला करते हुए तुम लोग खाई में गिर रहे हो....मैंने उसे शांत किया...नहीं तो उस वक्त फिर किसी अंग्रेज़ी लेखक का कोट सुनना पड़ता...ऐसा नहीं है कि हम उसका आलोचना कर रहे हैं। दरअसल अजय हमारे सुख दुख का साथी है। हम सबमें सबसे ज्यादा विदेशी ज्ञान उसी के पास है। वो इकलौता हमारे बीच अंग्रेज़ी का ज्ञाता है। उसे देखकर मुझे अपना भीमगढ़ ताल याद आता है....हो दरजी सी दे रे चोलिया हमार जैसे गाने से माहौल में रस घुला तो विनय ने अमित से पूछा-कैसे? जवाब था दलाली से। लेकिन शुरूआत पहले पायदान से करनी होगी...मैंने कहा चलो मुर्दाघर में दलाली का धंधा करते ईजाद करते हैं। इस पर विनय तपाक से बोला....हे, हम इलीट लोग हैं.....क्रमश:
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