Wednesday, April 22, 2009

तमाशा-ए-इलेक्शन


एक तो लगातार बढ़ती गर्मी औऱ ऊपर से पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव की तपिश नेता बेचारे करें तो क्या, दिमाग गरम होना तो लाजमी ही है। सो इसका असर भी दिख रहा है, अब चुनाव में मुद्दों की कोई जगह नहीं बची है। मुझे याद हैकि पहले हमारे गांवों में नटों की टोली आया करती थी अपने करतब दिखाने और नाच गाकर वो उसके बदले कुछ पैसे ले जायाकरते थे। कुछ ऐसा ही हाल आजकल नेताओं का भी है। एक दूसरे को कौन कितना नीचा दिखा सकता है इसकी होड़ मची है। पहली लड़ाई की बात करते हैं जो पीएम इन वेटिंग और पीएम इन सिटिंग के बीच जारी है। अगर हम हिंदू धर्म की मानें तो अस्सी साल की उम्र में संन्यास ले लेना चाहिए लेकिन बीजेपी के पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी जी की तीव्र लालसा है कि इस बार तो प्रधानमंत्री की गद्दी नसीब हो ही जाए। अबइसके लिए आडवाणी जी ने हर चोला पहन लिया है। वो अब मंदिर नहीं धर्म निरपेक्षता की बात करते हैं। खैर जो भी हो आडवाणीजी लगातार चुनौती दे रहे हैं मनमोहन सिंह जी कोवो उनसे बहस करें, आडवाणीजी बहस उनसे क्या करना जनता से कीजिए कि वो आपकों क्यों चुने और फिर आप ये क्यों भूल जाते हैं कि बहस करते समय हर वक्त मैडम से पूछते थोड़े ही रहेंगे।जब से चुनावी तमाशे की शुरुआत हुई है आडवाणी जीकहते हैं कि मनमोहन जी अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं। ये गलत है, एक मनमोहनजी दिल के कमजोर हैं ऐसा कहकर आप उनका दिल दुखाते हैं आपको इसका लिहाज करना चाहिए। जाहिर वो गुस्से में आकर आपको भी कुछ कहेंगे। ऐसा हो रहा है। यहां तक कि एक कायर्क्रम में उन्होंने आडवाणीजी के नमस्कार का जवाब तक नहीं दिया। ये तो पहली लड़ाई थी। आरोप-प्रत्यारोप लगातार जारी हैं। बीजेपी के ही फायरब्रांड नेता नरेंद्र मोदी लगातार टारगेट करते हैं कांग्रेस पर। कभी उसे बुढ़िया कहते हैं कभी गुड़िया। मोदीजी लच्छेदार शब्दों से ऊपर उठिए बेहतर होता अपने दाग धो लेते।अब बात मैडम की, मैडम सोनिया गांधी, इनके पास कहने को केवल एक ही बातहै, एनडीए को अपना दामन देखना चाहिए, उनके समय में सबसे ज्यादा आतंकवादी हमले हुए हमारे टाइम में कम। मैडम एक बात मैं आपको बता शायद आपको पता हो पिछले एक साल में इराक के बाद बारत ही ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा आतंकवादी हमले हुए। अब बारी कांग्रेस के युवराज की, जनाब राहुल गांधी के पास कहने को केवल एक चीज है,तकरीबन हर पंद्रह दिन बाद वो अपने पिता को याद करते हैं और कहते हैं कि भारत में एक रुपए में से नब्बे पैसा करप्शन की भेंट चढ़ जाता है। हुजूर अगर आपको पता है तो कोशिश ये करिए ये सही लोगों तक पहुंचे। इसी खानदान के एक और लाडलेकी बात करते हैं। जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था। वो हैं संजय गांधी के सुपुत्र वरुण गांधी। यही उनकी पहचान थी हालांकि अब उन्होंने अपनी पहचान बना ली है। एक सेक्युलर देश में एक विशेष संप्रदाय के खिलाफ आग उगल कर। इसके अलावा और भी राजनीतिज्ञ हैं जो जुबान से लगातार ज़हर उगल रहे हैं उनका जिक्र करना ही जरुरी नहीं समझता। हां लालू जी को याद करते हैं वो तो काफी फेमस हैं। आजकल लालू का मैनेजमेंट हवा हो गया है उन्हें समझ नहीं आता कि सीटें कैसे पाएं। उनकी लालटेन लपलपा रही है।उन्हें चिंता है कि कहीं बुझ गई तो ऐसे मैं पत्नी राबड़ी ने और मुसीबत खड़ी कर दी है, जो हर समय नीतीश कुमार पर तीर कमान साधे हैं और नीतीश उन पर। तो ये है इस बार का चुनाव। ऐसा पहले कभी आपने देखा था। क्या इन नेताओं को विदर्भ में मरते किसान याद हैं। पिछले साल बिहार में इतिहास की सबसे भयानक बाढ़ आई क्या वो करोड़ों लोग याद इन नेताओं को याद हैं जो करोड़ों लोग इसमें बर्बाद हो गए, नहीं इन्हें तभी याद आता है जब उसे भुनाकर वोट लेना हो। एक गुजारिश है माननीयनेताओं से कम से कम सार्वजनिक मंच का तो खयाल करिए ओछी बातें तो ना बोलिए। लेकिन ये कहां मानने वाले, अभी पिक्चर आधे पे पहुंची है। आगे आगे देखिए होता है क्या।

Wednesday, October 29, 2008

कहां खड़े हैं हम


एक बार फिर क्षेत्रवाद ने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाया है। महाराष्ट्र में राज ठाकरे जो कर रहे हैं उसका तात्कालिक हित तो उन्हें दिख रहा है लेकिन दूरगामी नतीजा उनके लिए भी शुभ नहीं... रेलवे की परीक्षा देने गए उत्तर भारतीय परीक्षार्थियों पर एमएनएस के कायर्कर्ताओं ने जो मारपीट की उसकी प्रतिक्रिया दिखनी शुरु हो गई है। बिहार में जिस तरह छात्रों ने आंदोलन किया उससे माहौल गरमाने के आसार ही ज्यादा थे, ये अलग बात है कि हर वर्ग के छात्रों का समर्थन उसे नहीं मिला वरना रुप कुछ और ही होता...इसके कुछ दिन बाद ही मुंबई पुलिस ने जिस तरह राहुल राज को मार दिया ये निहायत ही शर्मनाक है... जिसे गिरफ्तार किया जा सकता था उसे मार दिया गया जैसे वो दाऊद गैंग का गुर्गा हो... और तो और महाराष्ट्र सरकार ने भी उसे समर्थन ही दिया...सबसे दुखद है कि केंद्र सरकार भी शिवसेना के खिलाफ राज ठाकरे को हवा दे रही है ताकि उसकी ज़मीन तैयार हो, वोट बैंक का घिनौना खेल ही इस समाज की जड़ खोद रहा है.. राज ठाकरे को अंदाज़ा नहीं कि अगर जिस दिन दूसरे राज्यों में मराठी लोगों को मारा जाने लगे तो क्या होगा और यदि महाराष्ट्र में ही यूपी बिहार के लोग हिंसा पर उतर आएं और दंगे भड़क जाएं तो क्या होगा... ऐसी स्थिति से हमें बचना होगा सियासत का ये नंगा नाच रोकना होगा।

Monday, October 13, 2008

आप हमेशा याद आओगे....

पिछले दिनों पिताजी का देहान्त हो गया... हमेशा के लिए वो साथ छोड़कर चले गए...लेकिन उनकी
सिखाई बातें, उनकी डांट.. उनका दुलार ताउम्र याद रहेगा... पिताजी एक सीधे-सादे इंसान थे, कभी किसी
का बुराई नहीं हमेशा सबका भला चाहा... किसी से ऊंची आवाज़ में बात नहीं की तभी तो एहसास हुआ
कि उनके निधन पर गांव-जवार का हर आदमी रो रहा था... ज़मीदार खानदान से होने के बावजूद
भी उन्होंने किसी में कोई फर्क नहीं किया...उनके जीवन का एक ही सिद्धांत था--- ईमानदारी से जियो,
थोड़ी तकलीफ होगी लेकिन इसी में मज़ा है... कहते थे दामन पर दाग लग गया तो ज़िंदगी बेमज़ा
हो जाती है.. उन्होंने कभी किसी चीज़ का दबाव नहीं डाला... कहते थे अपने मन का काम करो, लेकिन याद रखना काम ऐसा हो कि शर्मिंदा ना हो.. मुझे कभी भी कोई बात खटकती तुरंत उनसे पूछता और वो बेहिचक समस्या सुलझा देते.. बिल्कुल एक दोस्त की तरह...एक वाकया याद आता है..उस वक्त पिताजी आज़मगढ़ के फूलपुर में पोस्टेड थे औऱ मैं चौथी क्लास में था, पंद्रह अगस्त का दिन था मेरे पास जूते थे लेकिन मैंने ज़िद कर दी मुझे नए जूते चाहिए, स्कूल परेड के लिए, पिताजी ने डांटा नहीं साथ लेकर सुबह-सुबह निकल पड़े.. एक हाजी साहब की दुकान थी, पिताजी ने उनकी दुकान खुलवाई और मुझे जूते दिलवाए..ऐसे ही जब दशहरे के मेले लगते थे तो मैं उनके साथ निकलता और ढेर सारे खिलौनों के साथ लौटता और आने पर मां कहती आप तो बेटे को बिगाड़ दोगे लेकिन पिताजी मुस्कुरा कर कहते ये नहीं बिगड़ेगा मेरे संस्कारों की धूप जो इसे सींच रही है...पिताजी आप तो चले गए
लेकिन वाकई आपके दिए संस्कारों से ही मेरी दुनिया रोशन है और चल रही है.. पंद्रह अगस्त और दशहरे के मेले तो हर साल आएंगे लेकिन वो दिन फिर कभी नहीं आएंगे....

धमाकें होते रहें तो अच्छा


पिछले दिनों आतंकवाद को लेकर पूरे देश में तमाम हलचल रही, अब मामला कुछ ठंडा हो रहा है। उसकी तो वजह थी हर जगह बम जो बरस रहे थे, खुफिया एजेंसियां औऱ सरकार नाकाम, लेकिन
बयान देने में सबसे आगे, गृह मंत्री जी तो केवल एक ही बयान बार-बार देते, जैसे लगता शपथ ग्रहण
के समय ही उसे अपने पीए टाइप करा लिया हो, इस दौरान मीडिया वालों ने उनकी जमकर खबर ली,
लेकिन महरौली ब्लास्ट के बाद वो डरकर नहीं बोले, सोचा कहीं कुर्सी न चली जाए। इसके अलावा
हर जगह बस इसी पर बहस, कभी फेडरल एजेंसी की बात तो कभी किसी सख्त कानून की मांग
फिलहाल ये मुद्दे नरम हैं अब ये गरम तभी होंगे जब तक अगला ब्लास्ट ना हो जाए। वो दिन भी
दूर नहीं कभी भी ऐसा हो सकता है, हमें तो आदत सी पड़ गई है, जनता तो मरने के लिए है ही, सियासतदानों की मौज है उनकी दुकान जो चलती है....


Saturday, March 8, 2008

राष्ट्रीय खेल क्रिकेट है.....

हिंदुस्तान का राष्ट्रीय खेल अब हॉकी नहीं क्रिकेट होना चाहिए। जिस तरह से क्रिकेट को तवज्जो मिल रही है ये इस बात के लिए पुख्ता पैमाना है. ये अच्छी बात है कि इंडियन टीम ने 23 सालों बाद ऑस्ट्रेलिया को हराकर वनडे सीरीज़ जीती है लेकिन ऐसा नहीं कि हमने विश्व कप जीत लिया, जिस तरह से हिंदुस्तानी मीडिया ने इस श्रृंखला को कवरेज दी है क्या हॉकी इसके लायक नहीं,
हॉकी टीम भी ओलंपिक क्वालिफाइंग टूर्नामेंट में आगे बढ़ रही है लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ऐसी कोई खबर नहीं, यहां तो अखंड क्रिकेट पाठ चल रहा है, चलिए श्रृंखला जीती तो खुशी है कवर करिए, लेकिन उसके बाद का हंगामा देखिए ,चैनल खिलाड़ियों की शादी करा रहे हैं... किसका क्या हेयर स्टाइल है.. इसकी गाथा चल रही है... लेकिन क्या हो यही सब बिकता है हॉकी का बाज़ार ऐसा नहीं जहां करोड़ों की आमदनी होती है, इसलिए हॉकी दीनहीन है.... हॉकी तू राष्ट्रीय खेल के लायक नहीं ये ओहदा छोड़ दे..........

Monday, March 3, 2008

एक शाम दलाली ज्ञान के नाम

जैसे ही विनय ने शराब की गिलास नीचे रखी, अजय ने अपने व्यंग्य वाणों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि कांग्रेस और तुम्हारी टिप्पणियां, कभी 6 महीने से ज्यादा टिक नही सकतीं। ....जैसे ही अजय ने अपने तरकश से तीर चलाने बंद किए- अमित बोला, ये बरछी नहीं ब्रह्मास्त्र है- ऐसी बातें हम अक्सर अपने दोस्त अजय के लिए करते हैं। अपने शब्दभेदी बाणों से लोगों को छलनी कर देना उसे बख़ूबी आता है। अजय की आदत थी कि उसकी बातों को काटा न जाए, क्योंकि उसे सब आता है - बाकी जिक्र आगे करूंगा। कहानी जो पूरी करनी है........
दरअसल ये स्वयंभू पंचायत हर सप्ताह एक बार जरूर होती है। और हम दोस्त जी भर के मुंहपिल्लई करते हैं। इस दौरान हर चीज पर चर्चा होती है - गाँव की पंचायत से लेकर बुश की नीतियों तक पर - गन्ने के खेत में होने वाले प्रेम प्रसंग से लकर हॉलीवुड की हीरोईनों पर.....हर तरह के क़िस्से...। पंचायतनामा पर आगे बढ़ने से पहले आपको इसके पात्रों से रूबरू करवा देते हैं.....हम चार दोस्त। पहले मेरे बारे में जानिए - मैं यानी रवि--उम्र 26 साल-सिर से कुछ बाल उड़ गए हैं- बाकी उड़ने के लिए पंख फैला रखे हैं....लगता ऐसे हूं जैसे सप्लाई विभाग का बड़ा बाबू....मुंह में पान हो तो क्या कहने। यूपी के एक छोटे से शहर से दिल्ली आया और देश के सर्वोच्च पत्रकारिता संस्थान में दाखिला लिया....सोचा एक दिन नामी पत्रकार बनेंगे...नया आदर्श बनाएंगे ताकि देश को वैचारिक क्रांति दी जा सके----आज ये क्रांति तभी आती है जब किसी पार्टी में एक पेग दारू अंदर जाती है। बाकी हालात ये हैं कि सूअर जैसे अपना पेट पालता है वैसे ही नौकरी किए जा रहे हैं। आलसी नंबर एक - मेरा दोस्त अजय...थोड़े से मोटे हैं जनाब, जैसे कपड़े की दुकान पर बैठा बनिया.....वो भी यूपी से....धनी घर का लड़का नाहक ऐसे मायाजाल में फंस गया। जन्म से कोई तकलीफ नहीं देखी-सो मनुवादिता आज भी रग-रग में मौजूद है। अमित-शक्ल ऐसी कि मानो दरभंगा जिले के डीएम का पीए हो। पान मसाले के शौकीन.....ये बिहारी बाबू भी मेरे जैसे आदर्शों के साथ दिल्ली आया, लेकिन कॉन्क्रीट के जंगलों में भटकते हुए. वो लौ दलाली की लकड़ियां जलाने लगी हैं। मेरी ही तरह आलसी नंबर एक....नित्यक्रिया करना भी पहाड़ खोदने जैसा है। अब बच गए विनय बाबू। थोड़े से सकुचाते लजाते....पान खाने में भी लिहाज़ देखते हैं। नाम कमाने का शौक है। हाथ में एक साहित्य की किताब नज़र आ ही जाती है। मानो अभी-अभी किसी कवि सम्मेलन से बुलावा आ जाए। अंग्रेज़ी माध्यम के छात्र रहे हैं, कंप्यूटर का ज्ञान भी रखते हैं। लेकिन सबकुछ छोड़-छाड़ कर चले आए पटना से दिल्ली-सोचा मार्क्स के चाचा बन जाएंगे। वो तो न हुआ लेकिन वैचारिक उल्टी से पूरा कम्युनिज्म उगल देते हैं। क्या कॉम्बिनेशन है हमारा। दो यूपी से, दो बिहार से। एक तो करैला, उपर से नीम चढ़ा। हम चारों ने एक ही संस्थान से डिग्री हासिल की और निकल पड़े मंज़िल की तलाश में। एक नामी अख़बार के दफ़्तर में चारों में से तीन यारों ने जगह बना ली। लेकिन अमित की मुफलिसी अभी मिटी नहीं है....उसके लिए हमारा प्रयास जारी है कि उसकी भी नौकरी लग जाए लेकिन किस्मत नाम की चीज़ ऐसा होने नहीं दे रही है। चूंकि हम चारो विवाह की बेड़ियों से नहीं जकड़े हैं सो मिलना आसान है....सप्ताह में एक दिन इसी के लिए मुकर्रर है कि अपने जख्मों पर नमक छिड़का जाए। आप ये न सोचें कि हम इस दौड़ान सिर्फ़ बकवास ही किया करते हैं। काम के चर्चे भी हुआ करते हैं। मस्तराम टाईप दोयम दर्ज़े साहित्य से लेकर पश्चिमी साहित्य तक। हमें साहित्य से गहरा लगाव है। मेरा ये लगाव तीनों से मिलने के बाद हुआ। अब चलता हूं उस जगह जहां से बौद्धिकता का नंगा नाच मैंने शुरू किया था। ....यानि अपनी बैठक में। मैंने अजय से कहा यार तुम्हारा नौकर जब से गया है बड़ी दिक्कत होती है। अपनी रॉकिंग चेयर पर किसी रायबहादुर की तरह बैठा अजय बोला...यार दूसरे के लिए कह रखा है। कुछ दिनों मे आ जाएगा। मैंने कहा यार इन लोगों के नाम भी अज़ीब होते हैं....उस नौकर का नाम था रामफल...ऐसे और भी नाम आपको मिल जाएंगे जैसे रामखेलावन, सुरतीलाल...लगता है आज़ादी के बाद भी ऐसा नाम रखना कहीं न कहीं दिखाता है कि समानता के नारे अभी ढ़ंग से नहीं लग पाए हैं। ख़ैर छोड़िए हमें क्या...इसके बारे में सोचना हमारा काम थोड़े ही है। सरकार को सोचने दीजिए। हमने तो एक साथ चार गुटके लिए और चारों ने दनादन मुंह में डाल लिए...गुटखा और पान की गिलौरी हमें इतनी प्रिय है कि क्या कहें और खाकर इतना आनंद आता है कि देवताओं ने अमृत पी कर भी ऐसा मज़ा न लिया हो। अमित बोला...यार पैसा कमाते हैं...दिल्ली में जो बड़े-बड़े मॉल हैं. चमक-दमक है....इस गंगा में डूबकर अपना भी उद्धार करते हैं। अजय का पारा चढ़ा, उसने चेहरे को लाल पीला करते हुए तुम लोग खाई में गिर रहे हो....मैंने उसे शांत किया...नहीं तो उस वक्त फिर किसी अंग्रेज़ी लेखक का कोट सुनना पड़ता...ऐसा नहीं है कि हम उसका आलोचना कर रहे हैं। दरअसल अजय हमारे सुख दुख का साथी है। हम सबमें सबसे ज्यादा विदेशी ज्ञान उसी के पास है। वो इकलौता हमारे बीच अंग्रेज़ी का ज्ञाता है। उसे देखकर मुझे अपना भीमगढ़ ताल याद आता है....हो दरजी सी दे रे चोलिया हमार जैसे गाने से माहौल में रस घुला तो विनय ने अमित से पूछा-कैसे? जवाब था दलाली से। लेकिन शुरूआत पहले पायदान से करनी होगी...मैंने कहा चलो मुर्दाघर में दलाली का धंधा करते ईजाद करते हैं। इस पर विनय तपाक से बोला....हे, हम इलीट लोग हैं.....क्रमश:

Saturday, February 23, 2008

ग्रहण लगा शनिचरा को.....

दोस्तों के ताने सुनते-सुनते थक गया हूं। लेकिन मेरी बेचैनी कौन समझे हम कैसे बताएं शनिचरा को तो ग्रहण लग गया है। तकनीक की ज्यादा जानकारी नहीं है औऱ घर पर मेरे कंप्यूटर को भूत ने पकड़ लिया है। इंटरनेट और तमाम समस्याओं से जूझ रहा है। जहां काम करते हैं वहां इतनी फुरसत कभी मिलती नहीं कि कुछ किया जा सके। काम के बोझ तले इतना दबे हैं कि भूल जाते हैं कि ब्लॉग नाम की कोई चीज़ होती है। इतना काम है कि नेताजी की लाइनें याद आती हैं.. तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा। सारे विचार मन की गलियों में सर टकरा टकरा कर दम तोड़ रहे हैं। बौद्धिक जुगाली कहीं बौद्धिक उल्टी के रुप में बाहर ना आ जाए। क्या लिखूं कब लिखूं ये दर्द किसको बताऊं... लेकिन हार नहीं मानूंगा रार नई ठानूंगा... नहीं नहीं अटलजी की कविता से पीछे चलते हैं... मैथिलीजी को याद करते हैं.. नर हो ना निराश करो मन को कुछ काम करो कुछ नाम करो...